‘Bob Biswas’ Film Review: स्वागत कीजिए ‘बॉब बिस्वास’ का…

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Bob Biswas Film Review: छोटी छोटी तंग गलियां, पुराने से बाजार, टोकरी में बिकती “इलिश” (हिलसा) मछलियों की गंध, असली सागवान की लकड़ी से बने दरवाज़े-खिड़कियां, उड़े रंग की दीवारें, चाय की स्टोव पर चलती छोटी छोटी दुकानें, किसी रेडियो या ग्रामोफ़ोन पर बजता आरडी बर्मन का कोई गाना, छोटी गोल्डफ्लेक या विल्स नेवी कट सिगरेट पीते लोग, भात खा खाकर निकली हुई तोंद पर हाफ स्वेटर और चश्मा डाले बाबू किस्म के लोग, तांत की साड़ी और बड़े गले के ब्लाउज के साथ बड़ी-बड़ी आंखें और बड़ी सी लाल बिंदी पहने गोरी-गोरी सी औरतें…

चौराहे पर, कोने की दुकान पर लुची (पूरी) और आलू भाजा (आलू की सब्ज़ी) खाते हुए रोज़गार के लिए जाते और दिन की बेरोज़गारी की प्लानिंग करते लोग. बिना बात हर शाम को अड्डा जमाते और मोहन बागान के सेंटर फॉरवर्ड से लेकर व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा के दूरगामी परिणामों पर घंटो बहस को उद्यत माछेर-झोल के आशिक. कहीं जा रहे और कहीं न पहुंच पा रहे कोलकाता को देखने के लिए सुजॉय घोष की आंखें चाहिए. बॉब बिस्वास कोलकाता का एक अनजान चेहरा है, लेकिन कोलकाता की महक उसके चेहरे पर नज़र आ जाती है. ज़ी 5 पर रिलीज़ बॉब बिस्वास (Bob Biswas) देख लीजिये.

2012 में निर्माता निर्देशक सुजॉय घोष ने लेखिका अद्वैता काला के साथ मिलकर एक फिल्म लिखी थी- ‘कहानी’. विद्या बालन अभिनीत इस फिल्म में एक कॉन्ट्रैक्ट किलर का महत्वपूर्ण किरदार था, जिसका नाम था बॉब बिस्वास. बंगाली फिल्मों के धाकड़ अभिनेता शाश्वत चटर्जी ने मोटे से, अनफिट, चश्मा लगाने वाले और थोड़ी दूर की दौड़ में ही हांफ जाने वाले कॉन्ट्रैक्ट किलर बॉब बिस्वास का धुआंधार किरदार निभाया था. फिल्म कहानी तो अच्छी थी ही, लेकिन बॉब बिस्वास के किरदार का “नमस्कार. आमी बॉब बिस्वास. एक मिनट” कह के सायलेंसर लगी पिस्तौल से माथे के बीचों बीच गोली मारने वाला, दर्शकों को बहुत पसंद आया था. उसको देखकर एक पल के लिए तो अंदर कहीं सिहरन होने लगती थी. इसी बॉब बिस्वास किरदार के लिए अब सुजॉय ने एक पूरी फिल्म लिखी है जिसमें बॉब बिस्वास के जीवन के एक हिस्से को दिखाया गया है, और मज़े की बात है कि फिल्म वहां ख़त्म होती है जहां से फिल्म “कहानी” शुरू होती है. एक फर्क है, बॉब बिस्वास का किरदार निभाने के लिए इस बार शाश्वत चटर्जी नहीं, बल्कि 100 किलो से भी ऊपर वज़न बढ़ा लेने वाले सुन्दर अभिनेता अभिषेक बच्चन हैं.

फिल्म का निर्देशन सुजॉय की सुपुत्री दिया अन्नपूर्णा घोष ने किया है. दिया ने इसके पहले सुजॉय के साथ “बदला” फिल्म में असिस्टेंट डायरेक्टर का काम किया है. पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं तो सुपुत्री का हुनर उसके जन्म से भी पहले तय माना जा सकता है. दिया का निर्देशन आपको सुजॉय की “कहानी” फिल्म की याद दिलाएगा, लेकिन कुछ खासियतें जिसमें दिया ने कमाल किया है. वो फिल्म को गौर से देखने पर ही पता चलती हैं. सुजॉय ने कहानी में बॉब बिस्वास का किरदार निभाने के लिए अभिषेक से पहले भी संपर्क किया था, लेकिन उन दिनों अभिषेक व्यस्त थे. फिर जब बॉब बिस्वास की कहानी अलग से लिखी जाने लगी तो सुजॉय ने अभिषेक से फिर संपर्क किया और इस बार बात बन गयी.

इसी तरह अपनी बिटिया को निर्देशन की कमान सौंपने का निर्णय भी विचित्र हो सकता था, लेकिन सुजॉय इस फिल्म को एक नए नज़रिये से देखना चाहते थे इसलिए उन्होंने एक युवा निर्देशिका के कंधे पर इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी. दिया ने इसे बखूबी निभाया है. पूरी फिल्म में रेडियो पर आरडी बर्मन का सिर्फ एक गाना सुनाई दिया है. एक सशक्त महिला किरदार (जैसा की बंगाल की अधिकांश महिलाऐं होती हैं), सिगरेट पीने वाले किरदार नहीं के बराबर हैं, फिल्म अंधेरी गलियों में भी घूमती है और रात के अंधेरे में भी, कुछ ऐसे किरदार हैं जो फिल्म में हैं तो फिल्म में हंसी, डर और खूंखारपन सब कुछ एक साथ आ जाता है. ये दिया ने फिल्म को दिया है.

अभिषेक बच्चन अपनी जिंदगी की सर्वश्रेष्ठ भूमिका में हैं. इस किरदार के लिए उन्होंने बदसूरत होना तय किया था. चेचक के दाने, 100 किलो से ऊपर वज़न, बेशेप और बेडौल बॉडी, और एक कन्फ्यूज्ड सा लुक जो फिल्म ख़त्म होते होते एक खूंखार लेकिन मुस्कुराते कॉन्ट्रैक्ट किलर में बदल जाता है. अभिषेक इतनी आसानी से बंगाली लगेंगे ये भरोसा नहीं होता, जबकि मां जया बच्चन पूरी तरह बंगाली हैं और अमिताभ खुद बंगाली कल्चर और भाषा से वाकिफ हैं. फिल्म में अभिषेक ने बंगाली कम ही बोली है और एक्सेंट भी नदारद है. चित्रांगदा सिंह लाजवाब हैं. उनका सुन्दर दिखना शायद उनके लिए फिल्मों में अभिशाप हो सकता है लेकिन इस किरदार में उन्होंने आंखों से ही काफी अभिनय कर लिया है. अमर उपाध्याय को ऑफिस में कोल्हापुरी चप्पल से पीटने का सीन लाजवाब है. ये सीन एक द्योतक था कि उनका पति वापस आ गया है और उन्हें छेड़ने वाले अब दूरी बनाये रखें.

फिल्म में दूसरी सर्वश्रेष्ठ भूमिका बंगाली अभिनेता परन बंदोपाध्याय की थी. काली दा का ये किरदार फिल्म की धुरी है. पूरी फिल्म में फलसफे के लिए ये किरदार सबसे उपयुक्त था. होम्योपैथिक दवाइयों की दुकान चलाने वाले इस काली दा को पूरा अंडरवर्ल्ड हथियार सप्लाय करने के लिए, दो नंबर की कमाई छुपाने के लिए और उलटे धंधों के तमाम राज़ पेट में दफन करने के लिए इस्तेमाल करता है. नियम तो नियम होते हैं जैसी गूढ़ बात बड़ी आसानी के कहने वाले काली दा, अभिषेक को जीवन का सार समझाने के लिए श्रीकृष्ण के कालिया मर्दन का उदहारण देते हैं जब कालिया सांप श्रीकृष्ण के कहता है – आपने मुझे दिया भी तो सिर्फ विष ही है, तो मैं और क्या करूं. बाकी कलाकार जैसे धोनू की भूमिका में पबित्र राभा यार बुबाई की भूमिका में पूरब कोहली, क्या अद्भुत अभिनय करते हैं कि फिल्म ख़त्म होने के बाद तक उनकी याद बनी रहती है.

फिल्म लिखी सुजॉय ने है और डायलॉग लिखे हैं राज वसंत ने. डायलॉग चुटीले हैं, मज़ेदार हैं और सिर्फ उतने ही हैं जितने चाहिए. एक भी शब्द अतिरिक्त नहीं लगता। फिल्म में कुछ याद रखने लायक जगहें भी हैं. जैसे पेरिस बार जहां पूरब कोहली “करिओके” में एक और आरडी बर्मन का गाना गाते हुए नज़र आते हैं. अभिषेक बच्चन जब बहुत सोचते हैं या नर्वस होते हैं तो धोनु के चाउमिन के ठेले पर जा कर 3-4 प्लेट चाउमिन पेल देते हैं. काली दा के होमियोपैथी स्टोर पर सायलेंसर वाली बन्दूक का नाम नक्स वोमिका है और बिना सायलेंसर वाली गन का आर्निका. ये सब बातें एक लेखक निर्देशक की महीन सोच को परिणाम हैं.बंगाली फिल्मों के एडिटर और सिनेमेटोग्राफर गैरिक सरकार ने कोलकाता का अंधेरा ढूंढ के निकाला है. ये शहर रात को भी एक नयी कहानी सुनाता है. एडिटर यशा रामचंदानी हैं जिन्होंने पहले आर्टिकल 15 या थप्पड़ जैसी फिल्में एडिट की थी. ये फिल्म हालांकि 2 घंटे से ज़्यादा की है लेकिन फिल्म में एक सीन भी घुसाया हुआ नज़र नहीं आता. जिस बेदर्दी से फिल्म को एडिट कर के प्रस्तुत किया है उस से ज़ाहिर है कि यशा फिल्म को तरजीह देती हैं प्रोड्यूसर या लेखक द्वारा सुझाये गए सीन्स को नहीं. फिल्म की एडिट के लिए उनका साधुवाद किया जाना चाहिए.

अंत में प्रश्न ये उठता है कि क्या शाश्वत चटर्जी बेहतर थे बॉब बिस्वास के किरदार के लिए? शायद हां या शायद ना. दोनों ही परिस्थिति में अभिषेक बच्चन की मेहनत और अभिषेक की लाजवाब एक्टिंग को भूला नहीं जा सकता. पूर्वाग्रह छोड़ कर देखा जाए तो अभिषेक ने कमाल काम किया है. बॉब बिस्वास के किरदार पर अब पूरी सीरीज बनायीं जा सकती है. नमस्कार, बॉब बिशाश (बिस्वास), एक मिनट कह के आपकी रूह तक डराने का माद्दा रखने वाले इस किरदार का अब खूंखार स्वरुप निकल कर आया है. ये और फिल्मों में निखर के आएगा. इस फिल्म को ज़रूर देखिये. सुजॉय घोष का नाम निकाल कर देखिये और कहानी फिल्म का हैंग ओवर उतार कर देखिये. हर सीन आपको एक अलग फीलिंग दे कर जायेगा. स्वागत कीजिये दिया अन्नपूर्णा का, और स्वागत कीजिये अभिषेक बच्चन यानी बॉब बिस्वास का.

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
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Tags: Abhishek bachchan, Bob biswas, Film review